विज्ञान एवं आध्यात्मिकता
विज्ञान एवं आध्यात्मिकता
विज्ञान एवं आध्यात्मिकता में संबंधों पर चर्चा वर्षों से चली आ रही है, परन्तु वास्तव में कोई प्रामाणिक सम्बन्ध है की नहीं, इसका स्पष्ट उल्लेख कहीं आसानी से नहीं मिलता। फिर भी, अनेकों महापुरुषों ने जो व्याख्या विज्ञान एवं आध्यात्मिकता को लेकर सैकड़ों वर्ष पहले ही दे दिया था वह अभी भी प्रासंगिक है। प्रासंगिक ही नहीं अपितु विज्ञानं तथा डिजिटल युग में और भी आसानी से विज्ञान की आध्यात्मिकता के साथ गहरा सम्बन्ध देखा जा सकता है। यदि आप विवेकानंद से लेकर आइंस्टीन तक के विचारों, दर्शनशास्त्रों का अध्ययन करें तो पाएंगे की इन महापुरुषों ने अत्यंत ही सार्थक एवं महत्पूर्ण तरीके से विज्ञान के साथ आध्यात्मिकता का सम्बन्ध पूर्ण रूप से वैज्ञानिक तरीकों से किया है। वास्तव में स्वामी विवेकानंद जी सही कहा है "गॉड इस वन एंड ट्रूथ इस रिलिजन" जिसका अभिप्राय है की ईश्वर एक ही हैं और सत्य ही धर्म है। यदि हम सत्य के मार्ग पर चलते हैं एवं ईश्वर की साधना करते हैं तो पाते हैं की हम सभी का उद्देश्य एक ही होता है और वह है "मानव सेवा से प्रभु सेवा" । जिन लोग विज्ञानं का अध्ययन, खोज एवं अनुसंधान करते हैं उनका उद्देश्य एक सत्य की खोज में निहित होता है तथा उस सत्य को खोजने के बाद समाज के हरेक व्यक्ति की जीवन स्तर में सुधार लाने का प्रयास होता है। इसीलिए हम यदि विज्ञान एवं आध्यात्मिकता के उद्देश्यों को ठीक से जाने तो यह सीख मिलती है कि दोनों ही मार्ग में सत्य की ही खोज की जाती है।
स्वामी विवेकानंद तथा उनके समकक्षों से हमें सिखने को मिलता हैं कि धर्म एक सेक्टेरियन एप्रोच हो सकता है परन्तु आध्यात्मिकता हमेशा यूनिवर्सल होता है। आध्यात्मिकता हमें जाति, पंथ, भाषा, खान पान, रहन सहन जैसे विभिन्नताओं के बंधनों से मुक्त करता है, ठीक उसी प्रकार से विज्ञान की खोज का आधार तथा उद्देश्य भी सत्य के लिए होता है जो समाज के जीवन को श्रेष्ट बनाने में सहायक होता है। और इसीलिए आध्यात्किता को आत्मा का विज्ञान कहा जाता है, क्यूंकि हम यह अच्छे से जानते हैं की आत्मा अनश्वर है जिसका संचार एवं शरीरंतरण ही होता है, इसका अभिप्राय यह है की आध्यात्मिकता हमें बताती है कि आत्मा जैसे अनश्वर एवं विभिन्नताओं से परे होती है उसी तरह से विज्ञान की खोजुपरांत सत्य एक ही होता है। विज्ञान तथा आध्यात्मिकता दोनों का परम लक्ष्य परफेक्शन को प्राप्त करना होता है, चाहे वह पूजा या साधना पद्धति से ईश्वर को प्राप्त करना हो, या शोध रूपी साधना से सत्य की प्राप्ति हो। एक महत्पूर्ण श्लोक में हम पढ़ते हैं " एकम सद्विप्रा बहुधा वदन्ति" जिसका अभिप्राय है कि सत्य एक ही है जिसकी व्याख्या अलग अलग लोगों के माधयम से भिन्न भिन्न तरीके से की जाती है। इसी सत्य का ज्ञान हमें आध्यात्मिकता एवं विज्ञान के द्वारा भी प्राप्त होता है।
श्रीमद्भगवद्गीता में इसीलिए आध्यात्मिक मार्ग की
शिक्षा को कई श्लोकों में माधयम से भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा दर्शित किया गया है। देश विदेशों में दार्शनिक एवं ज्ञानी लोग इसीलिए
श्रीमद्भगवद्गीता को एक धर्म ग्रन्थ की तरह नहीं अपितु आधात्मिक ग्रन्थ की तरह मानते
हैं तथा इसका अध्ययन भी करते हैं। अध्याय दो
के तेईसवें श्लोक में आत्मा के अनश्वर स्वरुप का सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है। नैनं छिन्दन्ति
शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ २/२३ ॥ इसी
अध्याय के बावीसवें श्लोक में भी इसका उल्लेख मिलता है। वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि
गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही।। २/२२
॥
अब जरा आधुनिक काल के महान वैज्ञानिक आइंस्टीन का
चिंतन करें तो हमें जानकारी मिलता है कि "साइंस विथाउट रिलिजन इस लेम, तथा रिलिजन विथाउट साइंस इस ब्लाइंड"
जिसका भावार्थ अत्यंत की शिक्षादायी तथा सुन्दर है। धर्म के
बिना विज्ञान अपाहिज है एवं विज्ञान के बिना धर्म अँधा है। इसका अभिप्राय यह है कि विज्ञान का आधार भी सार्वभौमिक
ही होना चाहिए जो किसी भी पंथ को आहत नहीं पहुंचाता हो, मतलब ऐसा सार्वभौम धर्म पथ
आध्यात्मिकता का मार्ग ही सबको लेकर चलना सिखाती है और इसीलिए विज्ञान के अध्ययन, अनुसन्धान
तथा निष्पादन में भी आध्यात्मिक मार्ग के साथ चलना चाहिए। अन्यथा विज्ञान का निष्पादन
समाज के हर व्यक्ति के जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने के बजाय समाज में विनाश लाने
के लिए भी हो सकती है। ऐसा दृश्य हम दुनिया
के कुछ देशों में हाल के कुछ वर्षों में देख बी रहें हैं। उसी प्रकार धर्म मार्ग में चलना एवं अनुसरण करना
भी वैज्ञानिक पद्धति से करना चाहिए जिससे धर्म अनुसरण के माधयम से किसी भी प्राणी का
अहित नहीं हो सके अपितु सब का कल्याण हो। इन
सभी बातों को गहनतम रूप से समझने के लिए हमें आवश्यक ज्ञान की आवश्यकता होती है। जिस ज्ञान का उल्लेख आदि गुरु शंकराचार्य ने किया
था " ज्ञानादेव कैवल्यम् " जिसका अभिप्राय है की गज्ञान ऐसा हो की हमें
सभी विकृतियों एवं बंधनों से मुक्त करे तथा ज्ञान का उद्देश्य समाज के कल्याण में हो। विज्ञान के द्वारा अर्जित ज्ञान को यदि आध्यात्मिकता
रूपी पथ में चलते हुए उपयोग करें तो समाज के हर प्राणी के प्रति असीम प्रेम, समाज कल्याण
एवं दया करुणा की भाव जागृत होंगी।
वास्तव में आध्यात्मिकता एवं विज्ञान
के मध्य प्रगाढ़ सम्बन्धों को हमारा महान भारतवर्ष और भी प्रासंगिक तथा व्यावहारिक बनाती
हैं। आध्यात्मिकता के मार्ग में कुढ़ चलते हुए
हमारा भारत वर्ष पूरी दुनिया को सिखाती है कि "वसुधैव कुटुंबकम" अर्थात हरेक भारतवासी पुरे विश्व को अपना परिवार
मानती है। इसिलए चाहे वह योग के माध्यम से हो,या आध्यात्मिक प्रसंगों के द्वारा हो, या फिर
सुचना प्रौद्योगिकी में योगदान हो, भारत पूरे दुनिया में विश्वगुरु की भूमिका में है। यही नहीं दुनिया के बहुत से देश इस बात को सहर्ष
स्वीकार भी करने लगें हैं।
काश की लोग अध्यात्म और धर्म के अंतर को समझ पाते!
ReplyDeleteअच्छा सुचिंतित आलेख, आपको साधुवाद!
बहुत बहुत धन्यवाद ज्योति जी। पहले समाचार पत्रिकाओं में लिखने का काफ़ी समय मिल जाता था। अब फिर से लिखने का प्रयास कर रहा हूं। आपके कमेंट के लिए कोटिशः साधुवाद।
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